जिस मिटटी की खुशबू पे बड़े हुए 
वो खुशबू को दुर्गन्ध बोल मुह मोड़ चले  
जिस संकरी छोटी गली में पूरा बचपन काटा 
आज उन गलियों को ही कचरा बोल चले ..!
जिन लोगों के बीच बड़े हुए 
आज उन्हें ही पिछड़ा बोल चले 
जिन घरो की खिड़कियाँ तोड़ी थी 
आज उन्हें ही जर्जर बोल चले ..!
बारिश में जिन छतों पर नाचे थे 
आज उन्हें ही exposed बोल चले  
जिन नेहरों में  कागज़ की नाव चलाईं थी 
आज उन्हें ही नाला बोल चले ..!
जो शाम का इंतज़ार करते थे 
वो अब अँधेरे का इंतज़ार कर चले  
जो खुल के सबसे मिलते थे 
वो अब छुप छुप के ही रह चले ..!
दोस्त बदले ... ठिकाना बदला .. सारे रिश्तों से दूर हुए 
बड़ा आदमी बन्ने के लिए हम अपनों से दूर चले 
पैसा कमाया .. नाम कमाया .. पैरों पे तो खड़े हुए 
पर जब अपनों की ज़िम्मेदारी का नंबर आया 
तो हम अपना घर छोड़ चले ..!!

